
छुट्टी। अहा, कितना मधुर शब्द है। जब स्कूल में पढ़ते थे तब दो घंटियाँ बजती थीं। एक, जब स्कूल शुरू होता था। दूसरी, जब स्कूल ख़त्म होता था। पहली घंटी कितनी कर्कश थी , और दूसरी कितनी मधुर! दूसरी जब बजती थी तो दिल तरंगित हो उठा था। " दिल में घंटियाँ बजने लगी" जैसे मुहावरे कुछ ऐसे ही बने होंगे। छुट्टी की घंटी बजते ही बस्ते उठा कर भागने की उत्तेजना और ख़ुशी को तो बस गूँगे के गुड वाले मुहावरे से ही बयान किया जा सकता है। और इतवार की छुट्टी का तो इंतज़ार सदियों से रहता ही था। फिर होली की छुट्टी , दिवाली की छुट्टी, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी की छुट्टी। पर सबसे ज़्यादा इंतज़ार रहता था दो महीने की छुट्टियों का। पूरी दो महीने की छुट्टियाँ! अहा! आजकल की तरह की महीने बीस दिन की छुट्टियाँ नहीं। पूरी दो महीने की छुट्टियाँ!
अब तो छुट्टियों में भी छुट्टी कहाँ? समर कैम्प , रेफ़्रेशेर क्लैसेज़, और न जाने क्या क्या अगडम बगडम। वे होती थी छुट्टियाँ जब किसी को भी छुट्टियों के काम पूरा करने की कोई जल्दी नहीं होती थी । कर लेंगे आख़री हफ़्ते में। माँ - बाप भी कोई ज्यादा ज़ोर नहीं देते थे। उस समय न तो कोई करिअर की कोई फ़िक्र होती थी , न ही कोई चिंता कि कोचिंग क्लास में जाना है। जाने की ललक तो होती थी: मामा के घर जाने की। जहाँ अपने भाई बहन बाहें फैला कर इंतज़ार कर रहे होते थे। और गरमी की दोपहर में पेड़ों पर उछल- कूद, लड़ाई, रोना- धोना, मामा मामी के लाड़ और और न जाने क्या क्या। वे होती थी छुट्टियाँ! अब तो शुरू होने से पहले ही घंटी बज जाती है छुट्टियाँ ख़त्म होने की।
पर थोड़ा रुकें और सोचें। आख़िर छुट्टियों का मतलब, यानि कि अर्थ क्या है? क्या छुट्टियों का मतलब है सिर्फ़ सुस्ती और मस्ती? शायद , हाँ। रोज़ मर्रा के बोरियत भरे कामों से मुक्ति? एक तरह से व्यवधान? हाँ, शायद यही मतलब है।छुट्टी का अर्थ है ज़िंदगी के रूटीन से ब्रेक।इसका तिलसिम छिपा ही इस बात में है कि जो काम हम रोज, हर रोज करते हैं,उसे छोड़ दें, और स्थिर हो जायें। जो काम रोज करते हैं उन्हें न करें।कुछ समय के लिए पूर्णविराम लगा दें।टोलस्टोय ने एक जगह लिखा है कि नियमों किया पालन न करने की बाध्यता ही आज़ादी है। शायद छुट्टियों का सच्चा अर्थ भी यही है।
गुरुदेव टैगोर को पढ़ते है तो तीन भाव या अभिव्यक्तियाँ हमारे सामने बार बार आती हैं: छुट्टी, खेला, तथा काज नइ यानि कि करने को कोई काम नहीं। ये तीनों शब्द एक दूसरे के पूरक लगते हैं: छुट्टी हो,कुछ करने की मजबूरी न हो और अपनी मर्ज़ी से, अपनी मस्ती में काम करने की आज़ादी हो।
उनकी एक कहानी याद आती है जिसमें एक ऐसा ही अलमस्त आदमी काम करने वालों की बस्ती में फँस जाता है। वे सब व्यस्त आदमी उसे बार बार महसूस कराते हैं की वह निट्ठल्ला है। दुखी हो कर वह आदमी नदी के किनारे बैठ कर पत्थरों को रंगने लगता है। फिर एक दिन पानी भरने आयी एक लड़की को चोटी को बाँधने के लिए एक रंगीन रिबन बना कर देता है। घर जा कर लड़की शीशे के सामने खड़ी होती है तो पहली बार ख़ुद को ख़ूबसूरत पाती है। फिर पता चलता है कि उस निठल्ले आदमी को वहाँ से भगा दिया गया है। जहाँ बस्ती के सब कर्मठ आदमी उसके जाने से बहुत ख़ुश होते हैं , वहीं वह लड़की बहुत उदास हो जाती है: उसके हिसाब से वही एक आदमी था जो ज़िंदगी का पूरी मस्ती से लुत्फ़ ले रहा था।
टरांटो में छुट्टी बिताते लगभग चार महीने हो गए हैं। मुझे लगता है कि स्थान परिवर्तन से भी ज़्यादा महतवपूर्ण है ज़िंदगी के रोज़मर्रा के रूटीन से निजात पाना। यानि छुट्टी पाना। मर्ज़ी से सोना, मर्ज़ी से उठना। मर्ज़ी से पढ़ना, या पढ़ने की मर्ज़ी न हो तो टी वी देखना, या फिर दोबारा सो जाना ! छुट्टियाँ अवसर प्रदान करती है कि आप पीछे मुड़ कर देख पाएँ कि क्या ग़लत और क्या सही हुआ। चिंतन मनन कर सकें कुछ, और कुछ नया भी कर सकें। कुछ नए लोगों से मिलें, कुछ नए अनुभव कर पायें। कुछ नए बदलाव ला पाएँ । शायद छुट्टियों का असली अर्थ यही है। स्थान परिवर्तन तो एक माध्यम है, एक बहाना है। तो , टैगोर की बात ही सही है : छुट्टी, खेला और काज नई। बस , कुछ समय के लिए ही सही , ज़िंदगी के व्यापार के बही खाते बंद कर के मुँह ढक के सो जायिए। कवि दुष्यंत कुमार भी तो कुछ ऐसा ही तो कह गए हैं:
किस किस को याद कीजिए,
किस किस को रोईए,
आराम बड़ी चीज़ है,
मुँह ढक के सोईए।
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